
भाषा के सिद्धांत: भाषा के सिद्धांत के इस आर्टिकल में हम सीखेंगे कि आखिर किस प्रकार भाषा बच्चों या बड़ों द्वारा अर्जित की जाती है या सीखी जाती है। भाषा के सिद्धांत को हम पियाजे के अनुसार भी जानेंगे और अंत में भाषा के सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे।
भूमिका
बच्चे भाषा के जटिल सिस्टम को भी छोटी आयु में ही सीख लेते हैं। अधिकाँश बच्चे तीन या चार वर्ष की छोटी आयु में न केवल एक भाषा को अच्छी तरह से सीख लेते हैं बल्कि दो या तीन भाषाओँ पर भी पूर्ण स्वामित्व हासिल कर सकते हैं।
वे अपनी भाषाई प्रणालियों को सन्दर्भ के अनुसार अलग -अलग रख सकते है और आवश्यकता पड़ने पर वे उन्हें मिश्रित कर लेते है, अर्थात उन्हें यह भी पता होता है कि एक विशेष सन्दर्भ में कौन-सी भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
अलग अलग मनोवैज्ञानिकों ने भाषा के सीखने को अलग तरह से देखा है। जहाँ पैवलोव (Pavlow) और स्किनर ने भाषा के सीखने को केवल एक उद्दीपन अनुक्रिया बताया है; जिसे एक पैटर्न के अभ्यास, अनुकरण और स्मरण के माध्यम से किया जाता है।
वहीँ चोम्स्की (Noam Chomsky) ने कहा है कि हर मनुष्य के अंदर आंतरिक भाषा योग्यता (Language Acquisition Device) होती है; और व्यक्ति उसके अनुसार कठिन से कठिन भाषा भी सीख सकता है।
अर्थात चोम्स्की के अनुसार भाषा मनुष्य के दिमाग में पहले से ही विधमान होती है। लेकिन व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक (Behaviorists) इसके बिलकुल विपरीत थे; जिनका मानना था कि मनुष्य का मष्तिष्क एक खाली स्लेट कि तरह होता है।
वयगोत्स्की ने भी भाषा के सिद्धांत पर अपने विचार रखे हैं; उनका मानना था कि बच्चों की भाषा का निर्माण समाज के साथ अन्तः क्रिया का परिणाम है; उन्होंने यह भी बताया कि बच्चे भाषा विकास के दौरान दो तरह कि भाषा का प्रयोग करता है- आत्मकेंद्रित भाषा और सामजिक भाषा।
जहाँ आत्मकेंद्रित भाषा में बच्चा मन ही मैं बात करके खुद को गाइड करता है; वहीँ दूसरी ओर सामजिक भाषा में बच्चा समाज से बात करता है।
पियाजे का दृषिकोण
हालाँकि चोमस्की के द्वारा बताये गए भाषा के सिद्धांत ने भाषा को समझने के हमारे तरीके को अत्यधिक प्रभावित किया; लेकिन पियाजे का प्रभाव शिक्षा के क्षेत्र में अधिक है; Piaget (पियाजे) के संज्ञानात्मक विकास की पूर्व-क्रियात्मक, मूर्त क्रियात्मक और औपचारिक क्रियात्मक अवस्थाओं के सिद्धांतों ने सम्पूर्ण शिक्षाशास्त्रीय विचारों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया है।
पियाजे आंतरिक भाषा योग्यता को स्वीकार नहीं करते। अर्थात वे नहीं मानते थे कि बच्चे जन्म से ही भाषा अर्जन की क्षमता अपने अंदर लेकर पैदा होते हैं; पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के अनुसार उनके रचनावादी उपागम के अनुसार, सभी ज्ञान प्रणालियों का निर्माण संवेदी-गत्यात्मक युक्ति से होता है; जिसकी प्रक्रिया के दौरान एक बालक अनुकूलन और समायोजन की प्रक्रिया के माध्यम से विभिन्न प्रकार की योजनाओं का निर्माण करता है।
भाषा के सिद्धांत
एक बच्चा जिस समाज में जन्म लेता है उस समाज की भाषा को आयु के अनुसार अपने आप सीखना शुरू कर देता है; और 3 या 4 साल की आयु तक एक या एक से अधिक भाषाओँ पर स्वामित्व हासिल कर लेता है; शुरू में वह अनुकरण करके विभिन्न ध्वनियों को सीखता है।
वह दूसरों की ध्वनियों के अर्थ समझकर उनके उत्तर देने का प्रयास करता है; एक बालक उन्ही कार्यों को करने में व्यस्त रहता है; जिनमे उनकी रुचि होती है। इसलिए भाषा का विकास भी उसकी रूचियों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
भाषा को सिखने या प्राप्त करने के मुख्य सामान्य सिद्धांतों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
1. अनुकरण का सिद्धांत (Principle of Imitation)
बच्चा जिस समाज में रहता है उसी समाज की भाषा सुनकर या कॉपी करके सीखता है; अगर एक भारतीय बालक अमेरिका में ले जाया जाए और उसको संपूर्ण वातावरण प्रदान किया जाए तो उसकी प्रथम भाषा भी अंग्रेजी होगी; अर्थात भाषा को सीखने का आधार ध्वनियों का अनुकरण करना है।
एक बच्चा अपने परिवार के सदस्यों की भाषा का अनुकरण करके बोलना और बोली गयी बात को समझना सीखता है; एक भाषा शिक्षक को यह ध्यान में रखना चाहिए कि बच्चा बोली गई भाषा का अनुकरण करता है; और उसी प्रकार की भाषा बोलना शुरू करता है, जैसी वह सुनता है; इसलिए बच्चे के सामने शिक्षक को शुद्ध उच्चारण करना चाहिए।
2. क्रियाशीलता का सिद्धांत (Principle of Activity)
सभी बच्चे जन्म से ही क्रियाशीक होते है; यदि उनकी क्रिया में भाषा को शामिल किया जाये तो वे आसानी से भाषा को सीख सकते है। उदहारण के लिए, शिक्षक क्रियाओं के माध्यम से भाषा को सीखने में बच्चों की सहायता कर सकता है।
बच्चों को मौखिक वार्तालाप, कहानी, घटना के माध्यम से क्रियाशील रखा जा सकता है; वार्तालाप के बाद बच्चों को उसकी पुनरावर्ती करने के लिए कहा जा सकता है और इस प्रकार बच्चा क्रियात्मक ढंग से भाषा सीख जायेगा।
3. वास्तविक जीवन से जोड़ने का सिद्धांत
इस सिद्धांत को महत्त्व का सिद्धांत भी कहा जा सकता है; बच्चे उस चीज़ को जल्दी सीखना पसंद करते है जो उन्हें वास्तविक जीवन में उपयोगी लगती है; यदि भाषा को वास्तविक जीवन के कार्यों के साथ जोड़ा जाये तो उसे जल्दी सीखा जा सकता है।
उदहारण के लिए, बच्चों को अपने द्वारा किये गए अनुभवों को डायरी या अन्य जगह लिखने के लिए कहा जाता है। बच्चों से उनके वास्तविक जीवन की घटनाओं को लिखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
इससे भाषा का शिक्षण वास्तविक जीवन से जुड़ जाता है। इसके आलावा दैनिक रूप से अखबार पढ़ना और मुख्य समाचारों को को स्कूल में समाचार बोर्ड पर लिखना आदि भी इसके अंतर्गत शामिल किया जा सकता है।
4. अभ्यास का सिद्धांत (Principle of Exercise)
जो भी चीजें हम सीखते हैं उनका अभ्यास करना अनिवार्य होता है। अगर अभ्यास न किया जाए तो हम चीजें भूलने लगते हैं; इसी प्रकार एक बार भाषा का ज्ञान होने के बाद उसका अभ्यास करना अनिवार्य है।
यदि अभ्यास नहीं किया तो सीखी गई अवधारणाओं को भुलाया जा सकता है; यदि भाषा का निरंतर अभ्यास करवाया जाए तो वह सुदृण बन जाती है और वह हमेशा याद रहती है; तीन या चार साल तक सीखी गई भाषा को बच्चा कभी नहीं भूलता, लेकिन जो भाषायें स्कूल स्तर पर सीखी जाती है उन्हें भूला जा सकता है।
इसलिए स्कूल में सीखी गई भाषाओँ का निरंतर अभ्यास करना जरूरी है।
5. बहु माध्यमों का सिद्धांत (Principle of Multimedia)
बहु माध्यमों का हमारे जीवन में बहुत प्रभाव पड़ता है। हम अनेक चीजें या तो देखकर, सुनकर सीखते हैं जिसमें मल्टीमीडिया का बहुत योगदान है। बहु माध्यमों के सिद्धांत के अनुसार भाषा को जितना अधिक माध्यमों से प्रस्तुत किया जाता है, वह उतना ही जल्दी और स्थायी रूप से सीखी जाती है।
बच्चों को बहुमाध्यमों से भाषा को सीखना चाहिए, जैसे दृश्यात्मक, श्रावयात्मक, दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वार। भाषा को सीखने के मुख्य बहुमाधयम है- अखबार (दृश्यात्मक), रेडियो (श्रावयात्मक) और टेलेविज़न (दृश्य-श्रव्य)।
6. बोलचाल का सिद्धांत (Principle of Conversation)
हमारे जीवन में हम अधिकतर शब्द बोलचाल से ही सीखते हैं और उनका प्रयोग नहीं कर पाते हैं। अर्थात यह कहा जा सकता है कि भाषा वातावरण में सीखी जाती है। आस-पड़ोस की भाषा आसपास के लोगों के साथ अंत:क्रिया के माध्यम से सखी जाती है।
उदहारण के लिए, मुंबई में हिंदी, उर्दू, गुजरती, मराठी और अंग्रेजी आदि भाषायें बोली जाती हैं। वहां बच्चों के सामने ये चारों भाषायें प्रदर्शित होती हैं और वे उन सभी भाषाओँ को आसानी से सीख लेते है। कभी कभी इस प्रकार सीखी गयी भाषा स्कूल में किसी दूसरी भाषा को सीखने में बढ़ा बन जाती है।
स्कूल में मानक भाषा को सिखाया जाता है जबकि पड़ोस में सीखी गयी भाषा स्थानीय बोली होती है, जो कि स्कूल के उद्देश्य को पूरा करने में असमर्थ होती है। ये समस्या और भी अधिक होती जाती है जब दो भाषाय एक ही परिवार की होती है।
वहां के बच्चे इन्ही भाषाओँ के शब्दों को सुनते हुए बड़े होते है और एक मिक्स भाषा का विकास करते है। इस प्रकार वह किसी एक भाषा को भी अच्छी तरह नहीं सीख पाते और उनमें सभी भाषाओँ का थोड़ा थोड़ा ज्ञान पाया जाता है।
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