
प्रकृतिवाद क्या है: इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि आखिर प्रकृतिवाद से अभिप्राय क्या है। प्रकृतिवाद (Naturalism) एक तरह की विचारधारा है और इस विचारधारा को मानने वाले लोगों को प्रकृतिवादी कहा जाता है।
प्रकृतिवाद क्या है
यह (प्रकृतिवाद) शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है -प्रकृति + वाद। जहाँ प्रकृति से अभिप्राय है कुदरत की बनाई हुई वस्तु या प्राकृतिक वस्तु और वाद का अर्थ है – विचारधारा।
प्रकृति का दुसरा अर्थ है वह कृति जो स्वाभाविक रूप में या प्राकृतिक रूप में विकसित हो; और जिसकी रचना मनुष्य ने नहीं की।
प्रकृति का अर्थ निम्न रूपों में समझा जा सकता है –
1. भौतिक प्रकृति
2. बालक की प्रकृति
भौतिक प्रकृति बाहरी प्रकृति है जो हमेशा सृष्टि द्वारा निर्मित है। भौतिक प्रकृति में प्रकृति के उन नियमों को लिया जाता है, जिसके कारण इस संसार की वस्तुओं का निर्माण होता है।
प्रकृति के यह नियम सदैव एक से रहते हैं, इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
बालक की प्रकृति का अर्थ बालक की आतंरिक प्रकृति है। इन आंतरिक प्रकृतियों से अभिप्राय उन मूल प्रवृत्तियों, आवेगों तथा क्षमताओं से है जिनको लेकर बालक जन्म लेता है।
प्रकृतिवाद के अनुसार बालक में प्रकृति के नियमों को उसकी आंतरिक प्रकृति के अनुसार प्रयोग में लाना ही शिक्षा का मुख्य कार्य है।
प्राचीन काल में पुस्तक तथा भाषा को विशेष महत्व दिया जाता था।
ऐसे वातावरण में बालक का स्वाभाविक विकास होना मुमकिन नहीं था।
इसी लिए शिक्षा प्रकृति का जन्म प्रतिरोध के रूप में हुआ जो स्कूलों तथा पुस्तकों पर निर्भर नहीं था; और इसका आधारभूत सिद्धांत बालक के जीवन को व्यवस्थित रूप प्रदान करना था।
प्रकृतिवाद की परिभाषाएं
प्रकृतिवादी विचारधारा वाले लोग प्रकृति को सर्वप्रधान मानते हैं। उनके अनुसार इस जहां में प्रकृति के अलावा दूसरी कोई सत्ता नहीं है।
वे प्रकृति को सर्वशक्तिमान मानते हैं और उसी के नियमों तथा कार्य कारण सम्बन्ध में विशवास रखते हैं।
इसकी कुछ परिभाषाएं नीचे दी गयीं हैं-
थॉमस एंड लॉन्ग के अनुसार: “प्रकृतिवाद आदर्शवाद का विरोध करता है, मन को पदार्थ के अधीन करता है और मानता है कि परम वास्तविकता भौतिक दुनिया है, आध्यात्मिक दुनिया नहीं।“
रॉस (Ross) के अनुसार: “प्रकृतिवाद दार्शनिक स्थिति है जो उन लोगों द्वारा अपनाया जाता है जो दर्शन को विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाते हैं।”
वार्ड (Ward) के अनुसार “प्रकृतिवाद एक सिद्धांत है जो’ प्रकृति को ईश्वर से अलग करता है, आत्मा को पदार्थ से अलग करता है और अपरिवर्तनीय चढ़ाव को सर्वोच्च बनाता है।
प्रकृतिवाद के प्रकार
प्रकृतिवाद को तीन भागों में बांटा जा सकता है। इसके तीन प्रकार निम्न हैं –
- पदार्थवादी अथवा भौतिक प्रकृतिवाद
- यंत्रवादी प्रकृतिवाद
- जैविक प्रकृतिवाद
पदार्थवादी अथवा भौतिक प्रकृतिवाद (Material Naturalism)
प्रकृतिवादी विचारधारा के इस रूप के अंतर्गत, संसार तथा मनुष्य की सभी क्रियाओं की व्याख्या भौतिक पदार्थों के आधार पर की जाती है।
इस विचारधारा के अंतर्गत पदार्थ को ही सत्य एवं शाश्वत माना जाता है।
इस विचारधारा का मनुष्य की अन्तः प्रकृति से कोई सम्बन्ध नहीं होता। बल्कि इसका सम्बन्ध तो बाह्य प्रकृति से होता है।
यंत्रवादी प्रकृतिवाद (Mechanical Naturalism)
प्रकृतिवादी विचारधारा के इस रूप के अंतर्गत मनुष्य को तथा संसार को एक यन्त्र माना जाता है।
जिस प्रकार यन्त्र खुद कोई कार्य नहीं कर सकता और उसको संचालित करना पड़ता है।
उसी प्रकार मनुष्य को भी बाहरी प्रभावों द्वारा संचालित किया जाता है; इस विचारधारा के अनुसार सम्पूर्ण संसार को ही प्राणहीन माना जाता है।
इस प्रकृतिवाद ने व्यवहारवाद को जन्म दिया है जिसके अनुसार सभी बच्चे कुछ सहज क्रियाओं के साथ पैदा होते हैं।
और जब उन बच्चों की क्रियाएं बाहरी समाज के पर्यावरण के संपर्क में आती हैं तो कुछ नयी क्रियाओं की रचना होती है; जिसके द्वारा व्यक्ति कार्य करना सीखता है।
इस प्रकार इस विचारधारा में व्यवहारवाद मनुष्य तथा पशु क्रियाओं में कोई भेद नहीं करता।
जैविक प्रकृतिवाद (Biological Naturalism)
जैविक प्रकृतिवाद का उद्गम डाविर्न के क्रम विकास सिद्धान्तों से हुआ है। इसके अनुसार मानव का विकास जीवों के विषय में सबसे अंतिम अवस्था में है।
मानव मस्तिष्क के द्वारा विज्ञान को संचित रखा जा सकता है, और नये विचार उत्पन्न किये जा सकते हैं। ल
किन अन्य प्राणियों की तरह मानव भी प्रकृति के हाथों का खिलौना मात्र ही है।
अर्थात प्रकृतिवादी विचारधारा के इस रूप में विकास सिद्धांत में विश्वास रखा जाता है।
विकास सिद्धांत के अनुसार जीवों के विकास का एक क्रम होता है; इसके अनुसार साधारण जातियों से पौधे, पौधों से जीव जंतु, जीव जंतुओं से पशुओं और मनुष्यों से मनुष्य का निर्माण हुआ है।
इस विचारधारा के समर्थक मनुष्य और पशुओं में समानता नैसर्गिक स्वभाव के कारण मानते हैं।
चार्ल्स डार्विन का मानना था कि प्रकृति में परिवर्तन क्रमबृद्ध रूप से होता है; डार्विन का मानना था कि हम सभी के पूर्वज एक ही थे।
हर एक प्रजाति चाहे वह मानव कि हो, पेड़ की हो या फिर जानवर की, सभी एक-दूसरे से संबंधित होते हैं।
डार्विन के द्वारा दी गयी एक थ्योरी का नाम ‘थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन’ था।
इस थ्योरी के अंतर्गत कहा गया था कि विशेष प्रकार की कई प्रजातियों के पौधे पहले एक ही जैसे थे; लेकिन दुनिया की अलग-अलग स्थितियों में जीवित संघर्ष के चलते उनकी रचना में बदलाव होता गया।
इस वजह से आज एक ही जाति के पौधे की कई प्रजातियां पायी जाती हैं।
डार्विन ने विकास के दो सिद्धांत दिए हैं–
- जीवन के संघर्ष (Struggle for Existence)
- समर्थ का अस्तित्व (Survival of the Fittest)
जीवन के संघर्ष (Struggle for Existence)
जैसा कि हम जानते हैं कि पृथ्वी पर रहने और खाने (भोजन) की मात्रा सीमित है।
सभी जीव बड़ी तेजी से अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं; सभी जीवों के बीच स्थान और भोजन व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संघर्ष शुरू हो जाता है।
इस संघर्ष में केवल कुछ ही जीव अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल होते हैं।
समर्थ का अस्तित्व (Survival of the Fittest)
समर्थ का अस्तित्व से अभिप्राय उन व्यक्तियों से है जो लगभग सभी परिस्थितियों से जूझने के लिए तैयार हैं।
उदाहरण के लिए, कोरोना वायरस जिस कदर फ़ैल चूका है; इसमें जो व्यक्ति समर्थ है केवल वह ही अस्तित्व में रह पायेगा।
जिन्होंने अपनी सेहत या अन्य किसी वस्तु को अनदेखा किया, उसपर खतरा मंडराता रहेगा।
प्रकृतिवाद के सिद्धांत
प्रकृतिवाद के सिद्धांतों को इस प्रकार समझा जा सकता है-
संसार एक मशीन
प्रकृतिवाद के अंतर्गत संसार को एक मशीन माना गया है; और मनुष्य को उस मशीन का अंग जो कि अपने आप में संपूर्ण है।
मनुष्य की शक्तियां सीमित
मनुष्य की शक्तियां प्रकृति के अनुसार सीमित हैं और इंसान अपनी जन्मजात शक्तियों और मूल प्रवृति के अलावा और कुछ नहीं है।
जीवन का आधार
मनुष्य का जीवन भौतिक और रासायनिक पदार्थों का समूह है अर्थात जीवन प्राणहीन वस्तुओं से विकसित होता है।
मानव एक पशु है
मनुष्य का विकास पशु से हुआ है और मनुष्य पृथ्वी पर स्थित उछत्तम पशु है।
उत्पत्ति
सभी वस्तुएं पदार्थ से पैदा होती हैं। अतः अंतिम वास्तविकता पदार्थ ही है।
वातावरण का योगदान
हमें अनुभव, चिंतन, तर्क, कल्पना, आदि सभी मानसिक प्रक्रियाएं हमें वातावरण से प्रभावित होकर प्राप्त होती हैं।
वर्तमान में जीना
हमारा वर्तमान बेहद महत्वपूर्ण होता है अतः वर्तमान में अपने जीवन को सुखी सुन्दर, और खुशहाल बनाना चाहिए।
समाज का निर्माण
मनुष्य समाज का निर्माण अपनी आवश्यकताओं के अनुसार करता है।
प्रकृति का महत्व
प्रत्येक वस्तु प्रकृति से बनी है और अंत में प्रत्येक वस्तु को प्रकृति में ही मिल जाना है।
ईश्वर एक भ्रम
अंतिम सत्ता भौतिक तत्व है। ईश्वर, अंतरात्मा, मन, परलोक, इच्छा कि स्वतंत्रता प्रार्थना, आत्मा, तथा भगवान् सभी भ्रम हैं।
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