
विकास की अवस्थाएं (Stages of Development) पर आधारित इस आर्टिकल में हम पढ़ेंगे कि आखिर बालक का विकास किस प्रकार होता है। विकास की अवस्थाएं (Stages of Development) के माध्यम से हम यह जानेंगे कि बालक अपने जीवन में किन किन अवस्थाओं से होकर गुजरता है।
इस आर्टिकल के माध्यम से हम विकास का अर्थ, विकास की विशेषताएं, विकास की अवस्थाएं आदि पर चर्चा करेंगे। बालमनोविज्ञान का यह टॉपिक CTET, UPTET, MPTET, KVS, DSSSB तथा अन्य TET परीक्षाओं के लिए भी महत्वपूर्ण है।
विकास का अर्थ
इसका अर्थ वृद्धि के अर्थ से अधिक व्यापक है। विकास किसी विशेष अंग का परिवर्तन ना होकर बालक में होने वाले संपूर्ण परिवर्तनों को एक साथ व्यक्त करता। विकास वृद्धि तक ही सीमित नहीं होता बल्कि वृद्धि विकास का ही एक अंग है।
विकास बालक में गुणात्मक परिवर्तनों को बताता है जिसके कारण बालक की कार्य क्षमता व कार्य कुशलता में वृद्धि होती है।
विकास की विशेषताएं-
यह बालक के आंतरिक व बाहरी पक्षों में होने वाला परिवर्तन है। विकास गुणात्मक परिवर्तन है, इस प्रकार के परिवर्तन बालक की कार्य क्षमता से संबंधित वृद्धि को बताते हैं। विकास आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। विकास विभिन्न अवस्थाओं में क्रमानुसार होने वाला परिवर्तन है।
विकास की परिभाषाएं
मुनरो के अनुसार “परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था जिसमें बच्चा भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।”
हरलॉक के अनुसार “विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं हैं वस्तुतः यह तो व्यवस्थित एवं समानुपात प्रगतिशील क्रम है जो परिपक्वता की प्राप्ति में सहायक होता है।”
गैलन के अनुसार “विकास सामान्य प्रयत्न से अधिक महत्व की चीज है विकास का अवलोकन किया जा सकता है एवं किसी सीमा तक इसका मूल्यांकन एवं मापन किया जा सकता है। इसका मापन तथा मूल्यांकन तीन रूपों में किया जा सकता है – शरीर निर्माण, शरीर शास्त्रीय, व्यवहारिक व्यवहार चिह्न विकास के स्तर एवं शक्तियों को विस्तृत रचना करते हैं।”
विकास की अवस्थाएं-
बालक में विकास अचानक ही नहीं होता है। हम सभी में होने वाला यह विकास कुछ अवस्थाओं से होकर गुजरता है। बाल विकास की तीन मुख्य अवस्थाएं मानी गयीं हैं जो इस प्रकार हैं – शैशवावस्था, बाल्यावस्था, और किशोरावस्था।
1. शैशवावस्था (0-2)
बालक के जन्म लेने के उपरांत की अवस्था को शैशवावस्था कहते हैं। यह अवस्था 0 से 2 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। 2 माह की अवस्था में बालक वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करने लगता है। 4 माह में वस्तुओं को पकड़ने व संवेगो की स्पष्ट अभिव्यक्ति करने लगता है।
इस अवस्था को समायोजन की अवस्था भी कहते हैं।
इस अवस्था के अंतर्गत बालक के शारीरिक विकास में तीव्रता दिखाई देती है। प्रथम तीन वषों में गति तीव्र होती है तथा उसके बाद धीमी हो जाती है।
शिशु कि मानसिक क्रियाओं जैसे ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना, आदि के विकास में भी तीव्रता दिखने को मिलती है।
इस अवस्था में आकर बालक कि दूसरों पर निर्भरता बढ़ जाती है। और उसमें आत्म प्रेम कि भावना, नैतिकता, सामजिक भावना, आदि का भी विकास हो जाता है।
शैशवावस्था में शारीरिक विकास
इस अवस्था में शिशु का विकास तीव्र गति से होता है जैसे ध्यान स्मरण कल्पना संवेदना आदि की तीव्रता रहती है। शैशवावस्था में जन्म से 3 वर्ष तक बालक बच्चों में जिज्ञासु प्रवृत्ति पाई जाती है। कल्पना अमूर्त चिंतन तर्क की बजाय रटन्त स्मृति अधिक सक्रिय होती है।
शैशवावस्था में सामाजिक विकास
बालक अपने जन्म के समय सामाजिक नहीं होता। अपने स्वार्थ की पूर्ति ही बालक को भाती है जैसे भूख लगने पर किसी भी परिस्थिति में खाना मांगना। 1 वर्ष तक होते-होते पालक अपने और पराए में अंतर समझने लगता है।
सामाजिक व्यवहार का सकारात्मक व नकारात्मक होने का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है।
शैशवावस्था में नैतिक विकास
बालक नितांत कोरी स्लेट के समान होता है अतः हम नैतिकता या अनैतिकता के दायरे में बालक को सम्मिलित नहीं कर सकते। शैशवावस्था में नैतिक या अनैतिक का बोध नहीं पाया जाता है।
बालक के लिए तो सुखदाई अनुभव नैतिक और दुखदाई अनुभव अनैतिक होते हैं।
पियाजे शैशवावस्था को नैतिक विकास की प्रथम अवस्था मानते हैं।
2. बाल्यावस्था (3 से 12 वर्ष)
कॉल एवं ब्रूस ने इस काल को अनोखा काल की संज्ञा देते हुए लिखा है “वास्तव में माता-पिता को बाल विकास के इस अवस्था को समझना कठिन है”।
बाल्यावस्था का काल 3 से 12 वर्ष तक माना गया है।
इस अवस्था को दो भागों में विभाजित किया है एक पूर्व बाल्यावस्था 3 से 6 वर्ष दूसरी उत्तर बाल्यावस्था 7 से 12 वर्ष ।
इस अवस्था के अंतर्गत बालक कि मानसिक योग्यताओं में वृद्धि देखने को मिलती है। बालक कि जिज्ञासा, वास्तविक ज्ञान, रचनात्मक कार्यों में रूचि, सहयोग की भावना, संवेगों पर नियंत्रण, आदि बढ़ जाते हैं।
बाल्यावस्था में शारीरिक विकास
आकार और भार: बाल्यावस्था तक आते आते हैं बालक का कद 56 इंच का भार 85 पौंड के लगभग हो जाता है। दांत :इस अवस्था में बालक के दूध के दांत गिर जाते हैं व नए स्थाई दांत आने लगते हैं दांतो की संख्या 27 से 28 होती है।
हड्डियां और मांसपेशियां: बालक की हड्डियां मजबूत हो जाती है और बालक का शरीर संतुलन विकसित हो जाता है मांसपेशियों में भी मजबूती आती है।
बौद्धिक विकास व मानसिक विकास
बाल्यावस्था को बौद्धिक विकास का काल कहा जाता है। इस अवस्था में बालकों का भाषाई विकास पूर्ण हो जाता है और शब्द भंडार में काफी वृद्धि हो जाती हैं। इसके साथ बालक अपने विचारों की प्रस्तुति और कल्पना शक्ति विकसित करने लगता है।
साथ ही बालक की रुचियो का भी क्षेत्र विकसित हो जाता है।
संवेगात्मक विकास
बाल्यावस्था में बालक संवेगो पर नियंत्रण करना सीख जाता है। बाल्यावस्था सावेंगीक रूप से संतुलित विकास की अवस्था है। यहां बालक अपने भावों पर नियंत्रण करना सीख जाता है।
सामाजिक विकास
बाल्यावस्था तक आते-आते बालक में सामाजिकता का विकास हो जाता है। माता पिता के साथ के अलावा बालक को मित्रों का साथ भाने लगता है। समूह में रहना या खेलना बालक अब पसंद करने लगता है।
लिंगभेद की भावना का भी प्रारंभ हो जाता है ।
3. किशोरावस्था (12 से 18 वर्ष)
किशोरावस्था शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द से हुई है जिसका तात्पर्य परिपक्वता की ओर बढ़ने से है। किशोरावस्था को 12 से 18 वर्ष तक माना गया है।
इस अवस्था तक आते-आते बालक का पूर्ण रूप से विकास हो जाता है। इस अवस्था को तूफान और झंझावात काल माना है क्योंकि संवेगात्मक रूप से किशोरों में तीव्र परिवर्तन होते हैं।
किशोरावस्था में शारीरिक व योवन बदलाव तो होते ही हैं साथ ही उनकी बुद्धि भावनाओं व नैतिकता में भी परिवर्तन आता है।
इस अवस्था में कल्पना की बाहुल्यता, संवेगों की स्थिरता का बढ़ना, स्वतंत्रता कि भावना का विकास, लिंगों के प्रति आकर्षण, रुचियों में परिवर्तन, समाजसेवा की भावना, तथा व्यवसाय के प्रति चिंता आदि के भाव पैदा हो जाते हैं।
शारीरिक विकास
किशोरावस्था में शारीरिक वृद्धि की गति पुनः तीव्र हो जाती हैं। लड़के और लड़कियों में अनेक शारीरिक परिवर्तन होने लगते हैं यथा लड़कों की मूछें आना लड़कियों में मासिक धर्म आना इत्यादि।
लड़के और लड़कियां अपने रूप रंग की और अधिक ध्यान देने लगते हैं। लड़के और लड़कियों दोनों की आवाज में परिवर्तन आ जाता है। लड़कों की आवाज भारी व लड़कियों की आवाज कोमल हो जाती है।
संवेगात्मक विकास
किशोरावस्था में सवेंगो का विकास हो जाता है। किशोरों में संवेग तीव्र बेचैनी उत्पन्न करते हैं चिंता, भय ,प्रेम ,ईर्ष्या, क्रोध जैसे सवेंग विकास के शिखर पर पहुंच जाते हैं। रांस के शब्दों में” किशोरों का जीवन बहुत अधिक संवेगात्मक होता है”।
मानसिक विकास
वुडवर्थ कहते हैं कि “मानसिक विकास 15 या 20 वर्ष की अवस्था तक चरम सीमा में पहुंच जाता है”। तर्क कल्पना भाव विचार आदि बौद्धिक विशेषताएं इस अवस्था में विकसित हो जाती हैं।
किशोर किसी भी बात पर अधिक देर तक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। इस अवस्था में एक बात विशेष है किशोरों का अपना कोई ना कोई आदर्श होता है जिसके जैसा बनने की कोशिश किशोर करते हैं। नई रुचियां विकसित हो जाती हैं।
किशोरावस्था में सामाजिक विकास
इस अवस्था में सामाजिक कार्यों में किशोरों की रुचियां बढ़ जाती हैं। किशोर समाज में अपना स्थान बनाने की कोशिश करने लगते हैं। किशोरों में भी समूह के प्रति भक्ति भाव होता है।
समाज सेवा व देशभक्ति की और किशोरों की रुचियां विकसित होने लगती हैं।
निष्कर्ष
कहा जा सकता है कि बालक की प्रत्येक अवस्था उसके जीवन की एक महत्वपूर्ण अवस्था होती है जिसमें वह विशेष रूप से बढ़ना सीखता है वह विशेष रूप की गतिविधियों को सीखता है।बालक के लिए उसकी प्रत्येक अवस्था ही महत्वपूर्ण व समान रूप से उपयोगी है वह उसके जीवन के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
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