एरिक्सन का मनो सामाजिक विकास का सिद्धांत

एरिक्सन का मनो सामाजिक विकास का सिद्धां
एरिक्सन का मनो सामाजिक विकास का सिद्धां

एरिक्सन का मनो सामाजिक विकास का सिद्धांत: इस आर्टिकल में हम एरिक्सन का मनो सामाजिक विकास का सिद्धांत (Erickson’s Psycho-Social Theory Of Development) के सिद्धांत का वर्णन करेंगे।

और यह भी जानेंगे कि किस प्रकार यह एरिक्सन का मनो सामाजिक विकास का सिद्धांत (Erickson’s Psycho-Social Theory Of Development) सिद्धांत हमारे जीवन में विकास को प्रभावित करता है।

आप इस आर्टिकल के जरिये यह भी जान पाएंगे कि किस तरह एरिक्सन का सिद्धांत का परीक्षा में आपको इसका उत्तर देना है। ये नोट्स आपको CTET परीक्षा, CRSU, MDU, JAMIA, IPU और अन्य संस्थानों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। आइये इस पर चर्चा करते हैं-

भूमिका

एरिक्सन का मनो सामाजिक विकास का सिद्धांत (Erickson’s Psycho-Social Theory Of Development) बहुत महत्वपूर्ण है। यह न केवल बाल विकास के लिए सहायक है बल्कि प्रौढ़ों के विकास में भी सहायक है।

एरिक्सन के मनो-सामाजिक विकास के सिद्धांत (Erickson’s Psycho-Social Theory Of Development) के अनुसार व्यक्ति का पूरा जीवन विकास के आठ चरणों से होकर गुजरता है।

Erickson (ऐरिक्सन) ने यह सिद्धांत (Theory) अपनी पुस्तक में (जिसका नाम है ‘बाल्यकाल और समाज’) सन 1950 में प्रकाशित किया था। तथा बाद में वे उस सिद्धांत में सुधार भी किये हैं।

ऐरिक्सन के सिद्धांत के अनुसार मानव के व्यक्तित्व का विकास कई पूर्वनिश्चित अवस्थाओं (जो सार्वभौमिक होती हैं) से होकर गुजरता है।

ऐरिक्सन कौन थे? (Who was Erickson?)

ऐरिक्सन का पूरा नाम Erik Salomonsen था; उनको एरिक एरिक्सन के नाम से भी जाना जाता है।

उनका जन्म 15 June 1902 को जर्मनी के Frankfurt में हुआ था।

वे एक अहं (ego) आधारित मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने विकास का सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली सिद्धांत विकसित किया था।

हालांकि उनका सिद्धांत सिगमंड फ्रायड के काम से प्रभावित था; मगर एरिक्सन का सिद्धांत मनोवैज्ञानिक विकास के वजाए मनोलेंगिगता के विकास पर केंद्रित था।

मनो-सामाजिक विकास के सिद्धांत की विशेषताएं

सभी मनो सामाजिक अवस्थाओं में एक संक्रांति (Crisis) होती है; यह मनो सामाजिक संक्रांति घनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही तरह की हो सकती है।

हर एक मनो सामाजिक अवस्था की संक्रांति दूर करना व्यक्ति के लिए आवश्यक होता है। अर्थात उसका समाधान करना ही पड़ता है।

समाधान न करने से मनोसामाजिक विकास की अगली अवस्था में व्यक्ति का विकास नहीं हो पाता।

इन सभी मनोसामाजिक अवस्थाओं में ‘कर्म कांडता’ (Ritualization), कर्मकांड (Ritual) तथा कर्मकाण्डवाद (Ritualism) विध्मान होते हैं।

एरिक्सन ने इन तीनो कांडों को 3 R’s के नाम से प्रदर्शित किया है; जहाँ कर्मकांडता का मतलब है- समाज में हर दूसरे व्यक्ति के साथ सांस्कृतिक रूप से तथा स्वीकृत ढंग से अंत:क्रिया (Interact) करना।

कर्मकांड के अंतर्गत वस्यक समुदाय उनकी आवर्ती स्वरुप की घटनाओं को दर्शाते हैं; कर्मकांडवाद में व्यक्ति का ध्यान स्वयं अपने ऊपर ही केंद्रित होता है।

हर एक मनोसामाजिक अवस्था उससे पहले की अवस्था से जुडी होती है। तथा प्रत्येक अवस्था में विकास भी पूर्व अवस्था के आधार पर होता है।

मनो सामाजिक विकास की अवस्थाएं

जैसा कि हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि, ऐरिक्सन के सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति का संपूर्ण जीवन, विकास के आठ चरणों से होकर गुजरता है।

हर एक चरण में एक खास विकासात्मक मापदंड होता है; इसको पूरा करने में आने वाली समस्याओं का समाधान करना बेहद आवश्यक होता है।

ऐरिक्सन के अनुसार समस्या कोई संकट नहीं है; बल्कि संवेदनशीलता को बढ़ाने वाला महत्वपूर्ण बिन्दु होती है।

अर्थात समस्या का समाधान, व्यक्ति जितनी सफलता के करता है उसका विकास उतना ही अधिक होता है।

एरिक्सन के द्वारा प्रतिपादित मनोसामाजिक अवस्थाएं निम्न हैं-

1. विश्वास बनाम अविश्वास

मनोसामाजिक विकास की यह अवस्था जन्म से लेकर जीवन के पहले वर्ष में अनुभव किया जाती है।

यह अवस्था फ्रॉयड द्वारा बतायी गई मनोलैंगिक विकास की ‘ ‘मुखावास्था ‘ से काफी मिलती जुलती है।

इस अवस्था में अनेक गुणों का विकास होता है-

इस अवस्था में बच्चों में स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण होता है; बच्चों में दूसरों तथा अपनों के प्रति विशवास की भावना उत्पन्न हो जाती है।

उनको ये यक़ीन हो जाता है की उनके शरीर के अंग बहुत महत्वपूर्ण हैं। और अंगों द्वारा शरीर की जैविक आवश्यकताएं पूरी होती हैं।

बचपन में विश्वास बढ़ने की वजह से संसार के बारे में अच्छे विचार विकसित होते हैं।

अब बच्चा विशवास बनाम अविश्वास के संघर्ष का समाधान कर लेता है; और उसमें एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है। उस शक्ति को आशा कहते हैं।

2. स्वायत्ता बनाम शर्म

ऐरिक्सन के द्वितीय विकासात्मक चरण में (स्वतंत्रता बनाम लज्जाशीलता की) यह अवस्था एक वर्ष से तीन वर्ष तक की होती है।

स्वायत्ता से अभिप्राय विचारों, स्वयं क्रिया करने आदि की स्वतंत्रता से है।

और शर्म से अभिप्राय- लोग क्या कहेंगे, कूद की अभिव्यक्ति में रुकावट तथा स्वयं के विचार विकसित न हो पाना आदि से है।

इस अवस्था में निम्न गुड़ों का विकास होता है-

जब बच्चा पहली अवस्था में विशवास का भाव विकसित कर लेता है तो उसमें स्वतंत्रता एवं आत्म – नियंत्रण जैसे गुण पैदा हो जाते हैं।

बच्चे को छोटा मानकर जब माता-पिता उसे कोई कार्य नहीं करने देते; तब इन परिस्तिथियों में बच्चों में लज्जाशीलता की भावना पैदा हो जाती है।

इस लज्जाशीलता की वजह से बच्चों में मनोसामाजिक मनोवृत्तियां विकसित होती हैं ।

जैसे – स्वयं पर शक करना, शक्तिहीनता का भाव आदि।

3. पहल शक्ति बनाम दोषिता

ऐरिक्सन के विकास का यह तीसरा चरण लगभग 4 से 6 वर्ष तक होता है; इस अवस्था में प्रारंभिक शैशव अवस्था की तुलना में ज्यादा चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं।

इन चुनौतियों का सामना करने हेतु एक सक्रिय व्यवहार की आवश्यकता होती है।

अक्सर इस उम्र में बच्चों को उनके शरीर, उनके व्यवहार, उनके खिलौने और पालतू पशुओं के बारे में ध्यान देने को कहा जाता है।

यह अवस्था को फ्रॉयड के मनोलैंगिक विकास की लिंग प्रधानवस्था से मिलती जुलती भी कहा जाता है।

इस अवस्था में निम्नलिखित गुड़ों का विकास होता है –

इस अवस्था में बच्चों को दूसरों के कार्यों में ज्यादा आनंद मिलता है; अगर बालक गैर जिम्मेदार है और उसे बार-बार व्यग्र किया जाए तो उनके अंदर अपराध बोध की भावना उत्पन्न हो सकती है।

बच्चों की सामाजिक दुनिया उन्हें सक्रियता एवं पहल-शक्ति दिखलाने की चुनौती प्रदान करती है।

बच्चे घर के बहार के वातावरण में भाग लेना पसंद करने लगते है, क्यूंकि बच्चों की भाषा एवं पेशीय कौशलों का विकास इस अवस्था तक हो चूका होता है।

बच्चे को इस अवस्था में पहली बार महसूस होता है कि उनकी गिनती भी एक आदमी के रूप में की जाती है। तथा उनकी जिंदगी का भी एक उद्देश्य है।

जब माता-पिता द्वारा बच्चों को इस अवस्था में शाब्दिक या शारीरिक दंड दिया जाता है, तब उनमें दोषिता का भाव उत्पन्न होता है।

ऐसे बच्चे कभी भी खुल कर अपनी बात नहीं कह पाते; बच्चों के अंदर से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहने की क्षमता समाप्त हो जाती है।

एरिक्सन के अनुसार जब बच्चों में दोषिता का भाव सतत (continuously) बना रहता है तो; उनमे निष्क्रियता ,लैंगिक निपुंसकता एवं अन्य मनोविकारी क्रिया करने की प्रवृत्तियां तीव्र हो जाती है।

4. परिश्रम बनाम हीनता

यह ऐरिक्सन की चौथी विकासात्मक अवस्था है जो कि छह वर्ष की आयु से शुरू होकर लगभग 11 12 वर्ष तक की आयु तक रहती है।

इस अवस्था को फ्रायड के मनोलैंगिक विकास के अव्यक्तावस्था से मिलती जुलती भी कहा जाता है।

इस अवस्था में निम्नलिखित मुख्य गुण विकसित होते है

बालक द्वारा की गई पहल के द्वारा वह नए अनुभवों के संपर्क में आता है; इस अवस्था में बच्चे पहली बार औपचारिक शिक्षा के माध्यम से संस्कृति को सीखता है।

जब बच्चे स्कूलों में अपनी संस्कृति के प्रारम्भिक कौशल को सीख लेते हैं तो उनमे परिश्रम भाव उत्पन्न होता है।

परिश्रम के ऐसे भावों को समाज के सदस्यों से अधिक प्रोत्साहन मिलता है।

जब बच्चा को अपने कौशल को अर्जित करने असफल हो जाता है तब उसमें हीनता या असामर्थ्यता की भावना विकसित होती है।

हीनता के भाव कि वजह से बच्चे को अपनी क्षमता पर विश्वास समाप्त हो जाता है; और जब बच्चा परिश्रम बनाम हीनता के संघर्ष का समाधान सही तरीके से कर लेता है तो उसमे सामर्थ्यता पैदा हो जाता है।

5. अहम् पहचान बनाम पहचान भ्रान्ति

यह ऐरिक्सन का पांचवा विकासात्मक चरण है, तथा अनुभव किशोरावस्था के वर्षां में होता है; यह अवस्था 12 वर्ष से लेकर 19 से 20 वर्ष की आयु तक होती है।

इस अवस्था में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है-

इस अवस्था में किशोर अपनी खुद की पहचान बनाये रखने के प्रयास करता है; पहचान से अभीप्राय है- कि व्यक्ति अपने संसार के सम्बन्ध में खुद को किस प्रकार देखता है।

यह अवस्था किशोरावस्था (Puberty) के समान है। इसमें लैंगिक शक्ति पुनः जाग्रत हो जाती है।

इस अवस्था में व्यक्ति को कई प्रश्नों का सामना करना पड़ता है; जैसे कि वह कौन है? वह आखिर किसके संबंधित है? और उसका जीवन कहां जा रहा है?

यदि किशोर को सकारात्मक रास्ते पता लगाने का मौका न मिले तो, उसमें पहचान भ्रान्ति की स्थिति हो जाती है।

इस अवस्था में भूमिका सम्भ्रान्ति की पहचान संक्रांति उत्पन्न होने की वजह से, किशोर ठीक ढंग से अपनी जीविका का मार्गदर्शन नहीं कर पाते।

इस अवस्था में किशोरों में उद्देश्यहीनता, व्यक्तिगत विघटन तथा व्यर्थता कि भावना प्रधान होतीं हैं।

6. आत्मीयता बनाम अलगाव

ऐरिक्सन के सिद्धांत का यह छटवां चरण है; इसका अनुभव युवावस्था के प्रारंभिक वर्षो में होता है।

यह अवस्था २० वर्ष से लेकर ३० वर्ष तक कि आयु तक रहती है; आत्मीयता का अर्थ है, स्वयं को खोजना, जिसमें स्वयं को किसी और (व्यक्ति में) खोजना पड़ता है।

यह व्यक्ति के पास दूसरों से संबंध स्थापित करने का एक विकासात्मक मानक है।

इस अवस्था में निम्न गुण उत्पन्न हो जाते हैं –

अब इस उम्र तक व्यक्ति किसी न किसी व्यवसाय में लग जाता है। और अपनी जीविका कामना शुरू कर देता है।

इस अवस्था में व्यक्ति शादी व्याह के प्रारंभिक जीवन में प्रवेश कर चूका होता है; सही मायनों में व्यक्ति इसी उम्र में दूसरों से सामजिक और लैंगिक सम्बन्ध बनाने के लिए तत्पर रहता है।

इस अवस्था में व्यक्ति अपने सभी सम्बन्धियों से घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर लेता है।

जब व्यक्ति की किसी दूसरे व्यक्ति के साथ अच्छी मित्रता विकसित हो जाती है और एक आत्मीय संबंध बन जाता है, तब उसके अंदर आत्मीयता की भावना आ जाती है।

यदि ऐसा नहीं होता है तो अलगाव की भावना उत्पन्न हो जाती है।

जब व्यक्ति घनिष्टता बनाम विलगन से उत्पन्न होने वाले संघर्ष का समाधान ढूंढ लेता है तो उसमें स्नेह की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।

यह स्नेह की शक्ति और कुछ नहीं बल्कि मनो-सामाजिक शक्ति ही है।

7. उत्पादकता (जननात्मकता) बनाम स्थिरता

यह एरिक्सन की सातवीं अवस्था है। तथा यह अवस्था ३०वर्ष से लेकर ६५ वर्ष की आयु तक चलती है।

इस अवस्था का मुख्य उद्देश्य नई पीढ़ी को विकास में सहायता करने से संबंधित होता है; उत्पादकता का अर्थ है कि नई पीढ़ी के लिए कुछ नहीं कर पाने की भावना से स्थिरता की भावना उत्पन्न होती है।

इस अवस्था में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है-

उत्पादकता बनाम स्थिरता की इस अवस्था में आकर व्यक्ति अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के वारे में सोचने लग जाता है।

इस तरह सोचने की क्रिया को जननात्मकता के भाव से जाना जाता है।

जननात्मकता की भावना की वजह से व्यक्ति अब अपने समाज तथा अपनी अगली पीढ़ी के कल्याण के वारे में चिंता करने लगता है।

जब व्यक्ति में यह चिंता उत्पन्न नहीं होती तो उसमें स्थिरता पैदा होने का खतरा रहता है।

8. अहं संपूर्णता बनाम निराशा

यह ऐरिक्सन के मनो सामाजिक विकास की आठवीं और अंतिम अवस्था है।

यह अवस्था व्यक्ति को वृद्धावस्था या 65 वर्ष के बाद से मृत्यु तक के बीच अनुभव होती है।

इस अवस्था में निम्नलिखित व्यवहार विकसित होते हैं-

इस अवस्था में व्यक्ति का ध्यान अपने भविष्य से हटकर भूतकाल के जीवन पर होता है; अतः व्यक्ति अपने अतीत को याद करता है।

इससे या तो एक सकारात्मक निष्कर्ष निकालता है या फिर नकारात्मक।

सकारात्मक निष्कर्ष से व्यक्ति को संतोष का अनुभव होता है। तथा संपूर्णता की भावना का भी अनुभव होता है।

तथा नकारात्मक निष्कर्ष से उदासी की भावना व्यक्ति के दिल में घर कर जाती है। जिसे ऐरिक्सन ने निराशा का नाम दिया है।

इस अवस्था में व्यक्ति को मृत्यु से डर नहीं लगता क्यूंकि उनके अनुसार उनका अस्तित्व उनकी संतान द्वारा जारी रखा जायेगा।

एरिक्सन के अनुसार यह ऐसी अवस्था है जिसके अंतर्गत व्यक्ति में परिपक्वता (Maturity) सही मायने में उत्पन्न होती है।

निष्कर्ष


एरिक्सन के मनो-सामाजिक विकास के सिद्धांत में (Erickson’s Theory Of Psycho-Social Development) व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक की मनो-सामाजिक घटनाओं को समाहित किया गया है।

इस सिद्धांत में बताया गया है कि किस तरह व्यक्ति जैविक परिपक्वता तथा सामाजिक मांग के बीच में समन्वय स्थापित करता है।

एरिक्सन के द्वारा दिए गए इस सिद्धांत में ८ अवस्थाएं या चरण लिए गए हैं जिसके माध्यम से बताया गया है कि किस प्रकार व्यक्ति उम्र के हर पढ़ाव पर व्यवहार करता है।

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