
विश्वास तथा सत्य: विश्वास तथा सत्य में सम्बन्ध (Relationship between Belief and Truth) पर आधारित यह आर्टिकल स्टेट तथा शिक्षा से सम्बंधित परीक्षाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
इस विश्वास तथा सत्य में सम्बन्ध के आर्टिकल में हम जानेंगे कि आखिर विश्वास तथा सत्य का अर्थ क्या है; ये कैसे एक दुसरे से सम्बंधित हैं, और इनमें क्या अंतर है आदि।
यह (विश्वास तथा सत्य में सम्बन्ध) टॉपिक B.Ed, CTET तथा अन्य परीक्षाओं के लिए उपयोगी है।
विश्वास क्या है?
अक्सर विश्वास को ज्ञान का ही रूप माना जाता है; हमारे अपने अनुभवों व चिंतन के आधार पर हमारे मन में जो निश्चित विश्वास बन जाते है; उन्हें ज्ञान कहा जाता है।
हम किसी भी वस्तु को देखकर या किसी व्यक्ति के बारे में एक मत बना लेते हैं; इसी मत को कई बार हम बिना सत्यता के विश्वास में रूपांतरित कर लेते हैं।
अतः विश्वास के लिए किसी सत्यता या सच्चाई कि आवश्यकता नहीं होती; अर्थात विश्वास ज्ञान में रूपांतरित होता है; लेकिन विश्वास को ज्ञान में बदलने के लिए यह जरूरी है कि उसकी सत्यता का प्रमाण हो।
विश्वास को ज्यों का त्यों ही मान लिया जाता है, और उसके अलावा कुछ भी नही।
हर प्रकार का विश्वास हम सभी के मन के भीतर होता है; चाहे वह मनुष्य मन हो, पशु मन हो, या पक्षियों का मन हो।
अगर एक व्यक्ति नकारात्मकता या नेगेटिविटी पर ध्यान देता है तो उसके भीतर निगेटिव विश्वास पैदा हो जाता है।
इसी प्रकार एक सकारात्मक या पॉजिटिव मानसिकता वाले व्यक्ति के भीतर पॉजिटिव विश्वास होता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि सभी प्राणियों के मन में विश्वास पाया जाता है; चाहे उस विश्वास का रूप किसी भी प्रकार का हो।
विश्वास की परिभाषा
रसेल कि अनुसार “विश्वास मानसिक और शारीरिक दोनों स्थितियों का प्रमाणित मेल है; रसेल का मानना है कि विश्वास मात्र मन या शरीर से सम्बंधित नहीं है; बल्कि यह मानव संरचना की एक विशेष अवस्था है।”
ए॰ ड ॰बूजेल ने कहा था – ए॰ ड॰ बूजेल विश्वास को मानसिक क्रिया अथवा अवस्था न मानकर उसे वृत्ति मानते है; बूजेल का मानना है कि विश्वास कि लिए प्रमाण का होना अनिवार्य है; क्योंकि कोई भी विश्वास प्रमाण रहित नहीं हो सकता।
वस्तुतः जिस प्रमाण को हम विश्वास रहित समझते है; उसमे बात सिर्फ इतनी सी होती है कि जिस प्रमाण के आधार पर हम विश्वास करते है; उन प्रमाणों को दूसरों के सामने रखते हुए हम हिचकते हैं कि दूसरा व्यक्ति इस प्रमाण को मानेगा भी या नहीं।
विश्वास शब्द को वेबस्टर नामक शब्दकोष में स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि; “विश्वास किसी वस्तु की सत्यता की मानसिक स्वीकृति होती है। यह आवश्यक नहीं है कि निरपेक्ष रूप सत्य हो।”
वेबस्टर शब्दकोष के द्वारा दी गयी परिभाषा से ये बातें स्पष्ट होती हैं कि-
1. विश्वास एक प्रकार की मानसिकता है।
2. इस मानसिकता के द्वारा किसी तथ्य को स्वीकार किया जाता है।
3. और विशवास की स्थिति में निरपेक्ष सत्यता आवश्यक नहीं है।
विश्वास से तात्पर्य उन वस्तुओं में विशवास से है, जिनके बारे में आप आमतौर पर आश्वस्त नहीं हैं।
आप इस बात पर विशवास कर सकते हैं कि एक रस्सी आपके वजन को उठा लेगी; लेकिन आप तब तक सच्चाई को नहीं जान पाएंगे जब तक आप रस्सी पर चढ़ने की कोशिश नहीं कर लेते।
अक्सर, हम लोगों को उन चीजों पर विश्वास होता है जिन्हें संभवतः सत्यापित नहीं किया जा सकता है; जैसे कि परमात्मा में विश्वास।
सत्य क्या है
यह (सत्य) हमेशा तथ्यों पर आधारित होता है; सत्य वह है जिसको साबित किया जा सकता है, इसकी जांच और पुष्टि भी की जा सकती हैं।
सत्य आपके विश्वास पर निर्भर नहीं करता, सत्य हमेशा सत्य ही होता है।
उदाहरण के लिए, आप का यह विश्वास हो सकता है कि आप B.Ed के बाद टीचर या अध्यापक बन जायेंगे; लेकिन सच यह है कि आपको बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।
सत्य के सिद्धांत के अनुसार, विभिन्न ज्ञान के स्रोतों से ज्ञान कि प्राप्ति ही काफी नहीं है।
यह जानना भी आवश्यक है कि वह ज्ञान सत्य है अथवा असत्य, सही अथवा गलत, अच्छा है या बुरा; अर्थात ज्ञान का अर्जन ही काफी नहीं है, उसकी सत्यता कि जांच भी जरुरी है।
ज्ञान की सत्यता के सन्दर्भ में दार्शिकों के मुख्यतः चार सिद्धांत निम्न दिए गए है-
- स्वयं सिद्धि सिद्धांत (Self Evidence Theory)
- अनुकूलतावादी सिद्धांत (Correspondence Theory)
- व्यवहारवादी सिद्धांत (Pragmatic Theory)
- सामंजस्यवादी सिद्धांत (Coherence Theory)
स्वयं सिद्धि सिद्धांत (Self Evidence Theory)
इस सिद्धांत के अनुसार ज्ञान को स्वयं सिद्ध माना जाता है, क्योंकि यह सीधा, और स्पष्ट होता है।
जो ज्ञान जितना सरल सीधा, और स्पष्ट होगा वह उतना ही अधिक सत्य होगा; इन गुणों के होने से सत्यता और अधिक दिखलाई देने लगती है।
उदहारण कि लिए रेखागणित की स्वयं सिद्ध मान्यताओं को किसी प्रमाण कि आवश्यकता नहीं होती है।
इस सिद्धांत के दो मुख्य प्रवर्तक देकार्ते (Descarates) और लॉक (Locke) हैं।
देकार्ते ने बौद्धिक अनुभवों की स्पष्टता पर बल दिया है, और लॉक ने इन्द्रिय जन्य अनुभव के सरल प्रत्ययों की स्पष्टता पर विशेष बल दिया और उन्हें सत्य ठहराया है।
अनुकूलतावादी सिद्धांत (Correspondence Theory)
इस सिद्धांत के अनुसार सत्य, ज्ञान अथवा निर्णय वह है जो वास्तविक वस्तु के अनुकूल हैं, और सत्य तथ्यों पर आधारित हैं; तथ्यों के सही या गलत ठेहराना गलत है, क्योंकि तथ्य तो जैसे हैं वैसे ही रहेंगे।
लॉक (Locke) ने इस सिद्धांत का समर्थन किया था कि; यदि ज्ञान वास्तविक वस्तुओं से मेल खाता है तो वह सत्य ही होगा।
यदि विचार वस्तु स्तिथि के अनुकूल पाए जाते हैं; तो वे सत्य हैं और यदि वे प्रतिकूल हैं तो सत्य नहीं हैं।
दूसरे शब्दों में तथ्यो की अनुकूलता ही सत्य की परीक्षा है।
उदाहरण के लिए, एक घोटालेबाज आपको फोन करता है और दिखावा करता है कि वह आपके बैंक ब्रांच से कॉल कर रहा है और फिर आपको OTP बताने के लिए कहता है।
आप उस पर विश्वास कर सकते हैं कि वह आपके बैंक का ही कर्मचारी है, लेकिन सच्चाई यह है कि वह एक फ्रॉड व्यक्ति है।
इस व्यक्ति की बातों की पुष्टि करने के लिए हमें तथ्यों का निरिक्षण करना पड़ेगा; और इस जांच में यदि यह सिद्ध हुआ कि वह व्यक्ति सही में आपके बैंक से हैं तो उसका कथन सत्य है; नहीं तो असत्य है क्योंकि वह तथ्य के प्रतिकूल है।
सत्य की इस परीक्षा हेतु तथ्यों को स्वस्थित, स्वतन्त्र तथा वास्तविक मानना पड़ेगा और यह भी देखना होगा की उनका अनुभव या परिक्षण किया जा सकता है या नहीं।
व्यवहारवादी सिद्धांत (Pragmatic Theory)
व्यवहारवादियों के अनुसार सच्चा ज्ञान वह है जो व्यव्हार में उपयोगी हो; अतः सत्य ज्ञान की परीक्षा उनकी उपयोगिता में ही छुपी है।
जब मनुष्य के व्यवहार द्वारा अर्थात निरिक्षण-परिक्षण द्वारा किसी निर्णय या ज्ञान को परख लिया जाता है, तब ही वह सत्य ज्ञान कहा जा सकता है।
बिना परिक्षण के किसी भी ज्ञान को सत्य निर्णय नहीं कहा जा सकता।
प्रसिद्ध अमरीकी दार्शनिक जेम्स और डीवी इस निरिक्षण-परिक्षण पर विशेष जोर देते हैं।
डीवी के अनुसार “सत्य का अर्थ केवल एक ही है, वह है परीक्षित; इसके अतिरिक्त सत्य का कोई अन्य अर्थ नहीं है।”
उदहारण के तौर पर, किसी मकान के कोने में सांप जैसी दिखाई देने वाली वस्तु वास्तव में रस्सी है या सांप है; इसका अंदाजा उस कोने में जाकर चतुराई से उस वस्तु को टटोलने से ही लगाया जा सकता है।
अतः इस प्रकार का ज्ञान, व्यवहारिक अनुभव से ही प्राप्त किया जा सकता है।
सामंजस्यवादी सिद्धांत (Coherence Theory)
इस सिद्धांत के अनुसार सम्बंधित घटनाओं और वस्तुओं के सन्दर्भ में देखने से ही हमें ज्ञान का सही स्वरुप मालूम हो सकता है।
प्रोफेस्सर ब्रेडले का कथन है, सत्य अन्तर्सम्बन्धित सामंजस्य इकाई है।
ज्ञान का क्षेत्र जितना व्यापक होगा उतना ही हमें ये अवसर मिलेगा की हम अनुभव से प्राप्त ज्ञान का विश्व के शेष ज्ञान भण्डार से सामंजस्य कर सकें।
यदि हमारा ज्ञान विश्व के ज्ञान के विपरीत पाया जाता है, तो हो सकता है कि हम ही गलत हों।
दरअसल, कई मरतबा प्रतिभाशाली अनुसंधानकर्ता यह भी सिद्ध कर दिखाते है कि उनकी खोज द्वारा प्राप्त सिद्धांत ही बिलकुल सही है।
ऐसी दशा में संसार के ज्ञान-भण्डार का विकास किया जाता है; आंशिक निर्णय का ज्ञान मनुष्य के शेष अनुभव से सामंजस्य हो जाना चाहिए।
हमको यह समझना पड़ेगा कि मानव-बुद्धि दो विरोधी तथ्यों को एक साथ ही स्वीकार नहीं कर सकती है; इस प्रकार से सामंजस्य को दो निम्न भागो में बांटा जा सकता है –
तथ्यात्मक सामंजस्य
इसमें किसी तथ्य की सत्यता कि जांच अन्य ज्ञात तथ्यों से सामंजस्य के आधार पर की जाती है।
तार्किक सामंजस्य
इसमें उपस्थित विचारों के अर्थ की तार्किक जांच की जाती है; अर्थात यह देखा जाता है कि वह विचार कहाँ तक तर्कयुक्त हैं।
ज्ञान की सत्यता को परखने का मापदंड इस सिद्धांत के अनुसार इस प्रकार है कि क्या एक निर्णय दूसरे निर्णय के अनुकूल है जिनको हम सत्य मान सकें।
दूसरे शब्दों में क्या कथनों में संगति है, यदि उनमे परस्पर सम्बन्ध है, तो वे सत्य हैं; और यदि कथनों सम्बन्ध की कमी है तो यह कहा जा सकता है कि उनमे विरोधाभास है, और वे कथन असत्य हैं।
उदाहरण–
1 जनवरी, 2021 को शुक्रवार का दिन है। इस कथन के सत्य होने का क्या अर्थ लगा सकते है।
इस कथन के सत्य होने का अर्थ इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि 2 जनवरी, 2021 को शनिवार होगा; 3 जनवरी, 2021 को रविवार होगा; 4 जनवरी, 2021 को सोमवार होगा। इस प्रकार एक कथन की सत्यता तीन कथनों से सम्बंधित है।
ये कथन आपस में सामंजस्य रखते है।
आशा करते हैं कि विश्वास तथा सत्य में सम्बन्ध पर आधारित यह आर्टिकल आपको पसंद आया होगा; आप इसी तरह के कंटेंट के लिए हमें टेलीग्राम पर भी फॉलो कर सकते हैं।
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